अनादिकाल से भारत देश ज्ञानोपासना का केन्द्र रहा है । यह शाब्दी साधना ऋषियों के अनहद में मुखरित होती हुई साक्षात् श्रुति-स्वरूप में इस धरा पर अवतीर्ण हुई । यह विश्वविदित तथ्य है कि ऋग्वेद मानव के पुस्तकालय की सर्वप्रथम् पुस्तक है । ऋचाओं की अर्चना, सामगानों की झंकृति, यजुर्मन्त्रों के यजन तथा आथर्वणों के शान्ति-कर्मों से भारतीय प्रज्ञा पल्लवित और पुष्पित हुई । वेदों की श्रुति - परम्परा ने अपने ज्ञान का प्रसार करते हुए उपनिषद्, अष्टादश पुराण, शिक्षा-कल्प-निरुक्त-व्याकरण-ज्योतिष-छन्द, योगतन्त्र, षडदर्शन, रामायण, महाभारत, ललित काव्य, नीतिकाव्य आदि का अमूल्य वाङ्मय सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय विश्व को दिया । श्रमण परम्परा का बहुमूल्य वाङ्गमय भी संस्कृत में निहित है । इस बहुआयामी साहित्य के विकास के फलस्वरूप भारतीयों की प्रसिद्धि अग्रजन्मा के रूप में हुई तथा वेदों का ज्ञान भारतीय मनीषा का पर्याय बन गया । इस प्रकार भारतीय संस्कृति की संवाहिका होने का गौरव संस्कृत भाषा को जाता है ।
संस्कृत के इस विशाल वाङ्मय की कालजयिता का यही रहस्य है कि सहस्त्राब्दियों से गुरुकुलों और ऋषिकुलों आदि में इसका अध्यापन होता रहा । इस गुरुशिष्य-परम्परा को सुनियोजित रूप देते हुए संस्कृत के अनेक अध्ययन केन्द्र देश भर में चलते रहे उसी परम्परा में ही 20 वीं सदी में अनेक संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित हुए । उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, केरल, आंध्रप्रदेश आदि में संस्कृत विश्वविद्यालय विगत कई वर्षों से चल रहे थे । इसी क्रम में राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु वर्षों से चल रहा प्रयास वर्ष 2001 में सफल हुआ ।